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३१ जनवरी, १९७०
मैं ठीक तरह नहीं जानता कि क्या वृत्ति अपनाऊं । मुझे जो समस्या तंग कद रही है उसे एक साधारण प्रश्नके रूपमें रख रहा हूं, क्या सब कुछ निर्दिष्ट है?
तुम जानते हो मेरे वत्स, अधिकाधिक और निरपेक्ष भावसे, मैं देखती खैर -- मैं देखती हू -- हाँ, मै देखती हू, मैं अनुभव करती हू. हर चीज निर्णीत है ।
हर चीज निर्णीत है ।
और हर चीजके अस्तित्वका कारण है जो हमारी पकडूमें नहीं आता, क्योंकि हमारी दृष्टि काफी विस्तृत नहीं है ।
और तुम समझते हो न, जीवन, सत्ता, वास्तवमें सारे संसारका कोई अर्थ न होता अगर बात ऐसी न होती ।
जी हां ।
यह... यह एक प्रकारका निरपेक्ष विश्वास है । मैं उसे देखती हू । हां, यह एक ऐसी चीज है जिसे मैं देख रही हूं ।
कैसे कहा जाय?... अब मै इस विश्वासका मूल्य चुका रही द्रूं! शरीरको सत्ता हस्तांतरित करते हुए (जिसे मैं हस्तांतरित करना कहती हू) कठिन क्षणोंसे, वास्तवमें कठिन क्षणोंसे पाला पड़ता है । इस तरह साधारण दृष्टिसे यह निरर्थक होगा । क्योंकि हम जिसे ''परिवर्तन'' कह सकते हैं उसके साथ कठिनाइयां बढ्ती हुई प्रतीत होती हैं, लेकिन... सच्ची दृष्टिके लिये जब हम सच्ची दृष्टिके अंतरमें हों तो मिथ्यात्वकी जूठन ही समस्त रोगोंकी जड़ है (जो अभीतक मिली-जुली चीज है) । और एकदम भौतिक दृष्टिसे भी ऐसा हीं है (नैतिक दृष्टिसे इसे बहुत पहले ही जीत लिया गया था : कामनाओंके गायब होनेसे सभी तकलीफें गायब हों जाती हैं; उनका स्थान लें लेती है एक सतत और बिल्कुल सच्ची मुस्कान - यत्न-साध्य या बनावटी नहीं - सहज-स्वाभाविक मुस्कान), मेरा मतलब है भौतिक रूपसे, शारीरिक रूपसे : रोग, कष्ट और अन्य सब । यह वही चीज है । हां... तुम कम तैयार हो । जडू-तत्व बदलनेमें ज्यादा धीमा है, अतः ज्यादा प्रतिरोध आता है ।
और एकमात्र समाधान, हर क्षण, हर हालतमें एकमात्र समाधान है (आत्म-निवेदनकी मुद्रा) : ''जो तेरी इच्छा,'' यानी, पसंद और कामनाका लोप । कष्ट न झेलनेको भी पसंद न करना ।
लेकिन यह समझना कठिन है कि यह 'चेतना'... यह आसानी- से समझमें आ जाता है कि बृहत् और शाश्वतमें वह सबपर शासन करती है, लेकिन क्या बह व्योरेकी छोटी-छोटी बातोंमें भी शासन करती है...
अत्यंत सूक्ष्ममें ।
२०१ अत्यंत सूक्ष्ममें..
ठीक यही चीज मैं देख रही थी । मै समझ सकती हू कि क्यों । आज सवेरे यह समस्या थी : व्यक्तिगत चेतना, जब बहुत ज्यादा विस्तृत हो तब भी यह अनुभव नहीं कर पाती, यानी, ठोस रूपमें नहीं समझ पाती कि एक ही समयमें समग्रके बारेमें सचेतन होना संभव है । क्योंकि वह उस प्रकारकी नहीं है । उसे यह समझनेमें कठिनाई होती है कि समग्रकी चेतना एक ही समयमें, एक साथ, समग्र और छोटे-सें-छोटे व्योरेके बारेमें सचेतन होती है । वह
जी, हां, यह कठिन है... पर है आश्वासनदायक ।
हां, यह तुम्हें शांत कर देता है, शांत कर देता है, शांत... मैंने उस दिन तुमसे कहा था कि शरीरको मरे बिना मृत्युका अनुभव हों चुका है और इस अनुभवने शरीरको यह कहने योग्य बनाया : ''अच्छा है, यह बहुत अच्छा है,'' स्वीकार करना, बिना (कैसे कहा जाय?)... बिना प्रयासके -- लगे रहना । और तब वह चला गया । शरीरके विघटनके साथ ही लुप्त हों जानेकी पुरानी भ्रांति तो बहुत समयसे नहीं है । और अब स्वयं शरीरको विश्वास है कि अगर: वह छितर भी जाय तो इससे उसकी चेतनाका क्षेत्र विस्तृत हो जायगा... । पता नहीं कैसे समझाया जाय, क्योंकि चेतनाके लिये निजी या व्यक्तिगतका भाव और निजीकी आवश्यकता गायब हो गयी है ।
और मैं भली-भांति देखती हू कि शरीर इस बातसे बहुत अच्छी तरह- से अवगत है कि उसे केवल प्रतिरोधके कारण, -- 'सत्य' के प्रति अपने प्रतिरोधके कारण - कष्ट सहन करना पड़ता है । जहां कही पूर्ण लगाव है वहीं कष्ट तुरंत गायब हो जाता है. ।
(मौन)
लेकिन देशों और प्रदेशोंके लिये भी यही बात है : वही अधिकारका हस्तान्तरण । व्यक्तिगत अधिकारके स्थानपर दिव्य अधिकार आनेवाला है- और अधिकारका यह बदलना ही उस अकथनीय अव्यवस्थाका कारण है जिसमें मनुष्य रह रहे है -- अपने प्रतिरोधके कारण ।
(लंबा मौन)
सत्ताका कोई भाग (वह कोई-सा भाग क्यों न हो) संक्रमणके जितने निकट पहुंचता है, यानी, वह इस संक्रमणके लिये जितना अधिक तैयार होता है, उसकी अतिसंवेदनशीलता भी उतनी ही बढ्ती है । अतः, जब व्यक्ति समस्याओंके स्तरके पार हो जाता है और वैश्व दृष्टिसे देख सकता है तो उसकी व्यक्तिगत अति संवेदनशीलताके लिये समस्याएं भी बहुत ही तीव्र रूपसे संवेदनशील हो उठती हैं । मैंने इसे पहले मी देखा था; अब यह शरीरके लिये फिरसे हो रहा है । उसमें एक अतिसंवेदन- शीलता बढ़ रही है... हां, भयंकर रूपसे । जो लोग यह नहीं जानते कि ऐसा क्यों है वे सचमुच भयभीत हो उठते है... रोगकी संभावना... और... । समस्याओंके लिये भी यही बात है । केवल जो लोग जानते है और समझ गये है उनके लिये यह अंतिम प्रगति करनेका, इसका (माताजी दोनों हाथ ऊपरकी ओर उठा देती है) अवसर है ।
सार यह कि अभीतक जिस चीजको अपने पृथक अस्तित्वकी भ्रांति है उसे लुप्त हो जाना चाहिये । उसे अपने-आपसे कहना चाहिये : इसके साथ मेरा कोई संबंध नहीं, मेरा अस्तित्व नहीं है । यही अच्छे-सें-अच्छी वृत्ति है जिसे व्यक्ति अपना सकता है । तब... उसे महान् 'वैश्व लय'में उठा लिया जाता है ।
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